टोक्यो ओलिंपिक में भारत के शानदार प्रदर्शन पर सभी देशवासियों को बहुत बहुत बधाई. मैं जानता हूँ कि हमेशा की तरह इस बार भी कई लोगों के जहन में एक सवाल ज़रूर होगा, कि हमारे देश की इतनी बड़ी आबादी होने के बावजूद हमें ओलिंपिक में इतने कम मेडल्स क्यों मिलते हैं? कई बार हमारे खिलाड़ी मेडल्स जीतने के बेहद करीब आने पर हार क्यों जाते हैं? या कई बार हमारे गोल्ड जीतने के हकदार खिलाड़ी या तो प्रतियोगिता से ही बाहर हो जाते हैं, या फिर उन्हें सिल्वर या ब्रॉन्ज़ से समझौता क्यों करना पड़ जाता है? हालाँकि इन सभी सवालों के बहुत सारे कारण हैं, लेकिन आज मैं एक बहुत महत्वपूर्ण विषय पर बात करने जा रहा हूँ, ये वो विषय है जिस पर हमने आज तक कभी खुल कर चर्चा तक नहीं की. ये विषय है खेलों में प्रयोग होने वाली प्रतिबंधित दवाओं और उन्हें रोकने के लिए बनी एन्टीडोपिंग एजेन्सीज़ के बारे में.
जैसा कि ये तो हम सभी जानते हैं कि हमारे स्पोर्ट्स सिस्टम में बहुत खामियां हैं, और तमाम सुविधाओं के अभाव में आज तक जितने भी मेडल्स हमारे खिलाड़ियों ने जीते, वो उनकी व्यक्तिगत मेहनत, लगन और अनुशासन का नतीजा थे. और ऐसा भी नहीं है कि ये खामियां सिर्फ हमारे ही सिस्टम में हैं, ऐसी बहुत सी खामियां अंतर्राष्ट्रीय एन्टीडोपिंग सिस्टम की भी है, जिसे हम आज तक बहुत सरल और त्रुटिरहित समझते आएं हैं. और हमें लगता है कि खेलों में प्रतिबंधित दवाओं का प्रयोग करने वाले खिलाड़ियों कि संख्या न के बराबर है, जबकि हक़ीक़त तो ये है कि करीब 90% या शायद उससे ज़्यादा खिलाड़ी इन दवाओं का प्रयोग करते हैं और मैडल की रेस में हमसे कहीं आगे निकल जाते हैं. अब आप ये सोच रहे होंगे कि अगर ऐसा होता तो अभी तक वो सभी खिलाड़ी पकड़े गए होते. दरअसल, दुनिया का हर एन्टीडोपिंग सिस्टम त्रुटियों और अनियमितताओं से भरा पड़ा है, जिसका फ़ायदा विकसित देश सालों से उठाते आ रहे हैं, और आज जब वो स्पोर्ट्स साइंस में पहले से कहीं अधिक विकसित हो चुके हैं, दुनिया की किसी भी एन्टीडोपिंग एजेंसी को चकमा देना उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं है. ये खेल आज से नहीं बल्कि मॉडर्न ओलिंपिक की शुरुआत से काफी पहले से चल रहा है. आपको जानकर हैरानी होगी कि खेलों में ड्रग्स के इस्तेमाल का पहला दस्तावेज़ 1865 में एम्स्टर्डम में हुई स्विमिंग प्रतियोगिता का है, जिसमें एक डच खिलाड़ी ने अपना प्रदर्शन बेहतर करने के लिए ‘स्टिमुलैंट्स’ का प्रयोग किया था. इसी तरह प्रतिबंधित दवाओं के प्रयोग से किसी खिलाड़ी की होने वाली मौत का पहला दस्तावेज़ मॉडर्न ओलिंपिक की शुरुआत से दस साल पहले, यानी कि 1886 का है, जब 24 वर्षीय ब्रिटिश साइक्लिस्ट, आर्थर लिंटन की मौत ‘ट्राईमेथिल’ नाम की शक्तिवर्धक दवा के अतिप्रयोग से हुई थी. तब से ले कर अभी तक दुनिया के सभी एंटी डोपिंग सिस्टम्स में सैकड़ों खामियां आज भी हैं, जिन पर हज़ारों सवाल किये जा सकते हैं, जिनका ज़िक्र मैं बहुत जल्द इसी तरह के किसी लेख में करूँगा. फिलहाल हमें ये समझने की ज़रुरत है की अगर एन्टीडोपिंग एजेंसीज सही तरह से काम करतीं और अगर वो दोषियों को पकड़ने में सक्षम होतीं तो अभी तक भारत के पास बहुत मेडल्स आ चुके होते. इसे कुछ बहुत विशेष घटनाओं से समझा जा सकता है.
पहली घटना 1960 रोम ओलिंपिक की है, जिसमें मेंस 400 मीटर रेस में मिल्खा सिंह चौथवें स्थान पर आये थे, उन्हें अमेरिका के ओटिस डेविस, जर्मनी के कार्ल कॉफमैन और साउथ अफ्रीका के मैलकम स्पेंस ने पीछे छोड़ा था. ये वो दौर था जब स्पोर्ट्स में शक्तिवर्धक प्रतिबंधित दवाओं का धड़ल्ले से प्रयोग हो रहा था. उस समय न तो कोई एंटी डोपिंग एजेंसी ही थी और न ही इन ड्रग्स को पकड़ने का कोई तरीका था. उस समय अमेरिका के एथलीट्स ‘अम्फेटामिन्स’ का और जर्मनी के एथलीट्स ‘स्टेरॉइड्स’ का प्रयोग कर रहे थे. हमारे खिलाड़ियों को तो इसकी भनक भी नहीं थी. जब इसके बारे में मेरी मिल्खा सिंह जी से बात हुई तो पहले तो उन्हें बहुत हैरानी हुई और फिर वो अपने प्रतिद्वंद्विओं द्वारा इन दवाओं के प्रयोग को इंकार न कर सके. उन्होंने बताया, की मैं आज तक यही नहीं समझ पाया कि जिन खिलाडियों (अमेरिका के ओटिस डेविस और जर्मनी के कार्ल कॉफमैन) ने ओलिंपिक से पहले मेरे साथ कभी किसी और रेस में भाग तक नहीं लिया था वो मुझसे आगे कैसे निकल गए. रही बात साउथ अफ्रीका के मैलकम स्पेंस की, तो मिल्खा सिंह ओलिंपिक से पहले उसे हरा चुके थे. अब अगर उस समय प्रतिबंधित दवाओं का प्रयोग न हो रहा होता तो वो मेडल भारत का हो सकता था.
दूसरी घटना 1984 लॉस एंगेल्स ओलिंपिक की है, जिसमें विमेंस 400 मीटर हर्डल्स में पी.टी. ऊषा मोरक्को की नवल एल मोतवकल (गोल्ड), अमेरिका की जूडी ब्राउन (सिल्वर) और रोमानिया की क्रिस्टियाना कजोकारु (ब्रॉन्ज़) से पीछे रह गयी थीं. इसमें उन्होंने एक सेकंड के सौवें हिस्से से ब्रॉन्ज़ खो दिया था. जबकि एक दूसरे प्री-ओलंपिक्स ट्रायल्स के दौरान वो जूडी ब्राउन को हरा चुकी थीं. ये वो दौर था जब ‘अम्फेटामिन्स’ के अगली जनरेशन के ड्रग्स बन चुके थे, नए सिंथेटिक स्टेरॉइड्स पर प्रयोग चल रहे थे, तब तक ब्लड डोपिंग पर भी बैन नहीं था, और इस सब को पकड़ना लगभग नामुमकिन था.
और अगर इतिहास देखें तो अमेरिका की तरह मोरक्को और रोमानिया के खिलाड़ियों का डोपिंग रिकॉर्ड बहुत अच्छा नहीं रहा. यहीं नहीं मोरक्को आज भी दुनिया के सात सर्वाधिक डोपिंग देशों में शामिल है. अब अगर उस समय प्रतिबंधित दवाओं को पकड़ना आसान होता तो शायद एक और पदक हमारे पास होता. इस तरह के कई ऐसे उदाहरण हैं जिनमें हम मेडल्स के बहुत पास आ कर या तो पीछे रह गए या फिर हमें गोल्ड की जगह सिल्वर या ब्रॉन्ज़ से संतोष करना पड़ा.
इसी तरह का एक किस्सा 2000 सिडनी ओलिंपिक का है जिसमें वीमेंस वेटलिफ्टिंग स्पर्धा में हमारे देश की कर्णम मल्लेश्वरी तीसरे स्थान पर रहीं और देश को पहला महिला मेडल मिला. इसमें चीन की लीं वेइनिंग ने गोल्ड और हंगरी की रज़सेबेट मरकुस ने सिल्वर मेडल जीता था. ये वो दौर था जब इन दोनों देशों के कई खिलाड़ी डोपिंग में लिप्त थे. इस समय तक डिज़ाइनर स्टेरॉइड्स आ चुके थे जिन्हे पकड़ने का कोई तरीका एंटीडोपिंग एजेंसीज के पास नहीं था. और अगर ऐसा होता तो हमारा ब्रॉन्ज़, सिल्वर या गोल्ड में बदल चुका होता.
हमारे देश में इस तरह के खिलाड़ियों की एक बहुत बड़ी लिस्ट है जो दूसरे देशों के खिलाड़ियों द्वारा बड़े योजनाबद्ध तरीके से प्रतिबंधित दवाओं के सेवन की वजह से उस स्थान पर नहीं पहुँच सके जिसके वो सच्चे हकदार थे. और ऐसा नहीं है कि ये प्रक्रिया आजकल नहीं चल रही है. आज भी कई ऐसे ड्रग्स और तरीके हैं जिन्हें पकड़ना वाडा (वर्ल्ड एंटी डोपिंग एजेंसी) के लिए नामुमकिन है. अगर अब भी हमने इसके खिलाफ आवाज़ नहीं उठाई तो ऐसा हमेशा चलता रहेगा और हमारे खिलाड़ी ओलिंपिक पोडियम में कभी एक उचित स्थान नहीं पा सकेंगें.
डॉ. सरनजीत सिंह
फिटनेस एंड स्पोर्ट्स मेडिसिन स्पेशलिस्ट
लखनऊ
बेहतरीन आलेख। अनुभव और ज्ञान के समंदर में गोते लगाकर निकाला गया बेशकीमत मोती है यह। आपको आपके ब्लॉग की सफलता के लिए शुभकामनाएं।
बहुत बहुत शुक्रिया भाई, आपकी प्रेरणा से ही शुरुवात की है ब्लॉग्गिंग की.
Excellent study … Vry much informative as v always criticize our champs fr their last moment failure. DS ONE IS N EYE OPENING ARTICLE .. Which mst b read by nt only indians bt others too. Worthful sharing saran ….
I apologize for the late reply. Thank you so much for your kind comments.
Sir, your knowledge of the subject should be taken seriously by the government and I m sure things will change.
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शायद देश के अधिकांश लोग इस बारे में जानते ही नही की डोपिंग है क्योंकि आज भी देश का बहुत बड़ा भाग इस तरह की प्रतिस्पर्धा से बहुत दूर है,इस मे कोई दो राय नही की हमारे देश के युवाओं में किसी भी कार्य को करने का बेजोड़ जज्बा है परंतु इस तरह की कूटनीति से निपटने के लिए आप जैसे लोगो का सहयोग चाहिय जो आप बखूबी कर रहे।
आपका आभार
I apologize for the late reply. Thank you so much for your kind comments.
The need of the hour is FAIR SPORTS !
DEVELOPED WORLD – DO YOU DARE TO PLAY FAIR ??
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GREAT article Dr sir 🙏
Well written and easily explain.
Sir you have skilled this art of illustrating the points, scientifically, which many people miss to realise.